Book Review: हमआवाज़ दिल्लियाँ - मीरा कांत (Humaawaaz Dilliyan by Meera Kant)

Humaawaaz Dilliyan by Meera Kant Book Cover
Humaawaaz Dilliyan by Meera Kant
क्या आपने कभी खत लिखा हैं? वो भी किसी शहर के नाम। अगर नहीं तो कोई बात नहीं। इसमे शर्माने वाली बात नहीं हैं। आजकल वैसे भी कोई खत नहीं लिखता। और जो खत लिखे जाते है वो अक्सर सरकारी दफ्तरो, कॉर्पोरेट ऑफिस, या कोर्ट परिसर मे खानापूर्ति के लिए लिखे जाते हैं। मुझे भी एक सरकारी खत मिला हैं। खैर, हम उस खत की बात नहीं करेंगे। हम बात करेंगे एक असली खत की। हाँ, कुछ सिरफिरे अभी बचे हुये हैं। जो खत लिखते हैं। ना केवल अपने महबूब के नाम, मगर अपने शहर के नाम पर भी। मीरा कांत की किताब हमआवाज़ दिल्लियाँ एक ऐसा ही खूबसूरत खत हैं। जो उन्होने दिल्ली के नाम लिखा हैं।

यह खत कहने के लिए चार पीढ़ियों और दो परिवारों के बीच मे बटा पड़ा हैं। मगर यह खत सिर्फ एक ही शक्स - नियाज़ - के लिए लिखा गया हैं। या यूं कहे कि एक ही शक्स - दिल्ली - के लिए लिखा गया हैं।

मीरा हमे दिल्ली के उस चेहरे से मुखातिब कराती हैं जो एक समय, नयी दिल्ली के बसने से पहले नया शहर कहलता था। और जो अब पुराना हो चला हैं। मीरा हमे इस खत के जरिये दिल्ली के 1860 से लेकर 1920 तक के सफर का एक छोटा मुयाना करवाती हैं। जब कोई मौलवी होली के रंग से दाढ़ी रंग जाने से फतवा जारी नहीं करता था। जब एक हिन्दू माँ मुस्लिम लड़के मे अपने बेटे को देखने से नहीं कतराती थी। और जब कोई पंडित एक पीर के यहा रेवड़िया बटवाने जाता था। सब खुश थे। सब एक थे, अलग नहीं। खैर, सबकुछ इतना भी रंगीन नहीं था। कुछ शिकवे भी थे और शिकायते भी। और कुछ सवाल जो आप, मैं और नियाज़ खोजते हैं। इनमे से कुछ सवालो के जवाब तो हमे तीनों को मिल जाते हैं। मगर कुछ सवाल ज्यो के त्यों बने रहते हैं।

मीरा ने खत बहुत प्यार से लिखा हैं। और पढ़ने लायक भी हैं। तो जरूर पढ़िएगा। शुरुआती रिवयती उबायूपन के बाद इस खत मे झलकता हर रंग हर पन्ने के साथ खिलकर बाहर आता हैं। और आप इसमे डूबते चले जाते हैं। मगर वही यह खत एक खत होने के साथ-साथ एक कहानी भी हैं। कुल 248 पन्नो की। यह कहानी कुछ बेहतर हो सकती थी। अगर यह कहानी 1860 से लेकर 1920 की न होती, अगर यह कहानी कुछ और दशक चलती जैसे 1960 तक। मीरा ने जिस कालखंड और किस्सो का प्रयोग इस कहानी को कहने मे किया हैं, उस कालखंड और किस्सो का प्रयोग रवीन्द्रनाथ टागोर ने घरे-बाइरे मे किया हैं। राजा राव ने कांथापूरा मे किया हैं। और ऐसे कितने ही अनगिनत लेखक है जिन्होने इस कालखंड का प्रयोग अपनी कहानियों में किया हैं। और वो भी मीरा से बेहतर। अगर मीरा चाहती तो वो और भी बेहतर कर सकती थी। वो आज़ादी के बाद आए दिल्ली मे बदलाव के बारे मे बता सकती थी। उन रंगो मे आए खुरदरेपन के बारे मे बता सकती थी जो उन्होने इन पन्नो पर उकेरे थे। मगर उन्होने एक आसान रास्ता चुनना ज्यादा पसंद किया।

इसके अलावा उनसे एक और शिकायत हैं कि उन्होने जरूरत से ज्यादा ही उर्दू शब्दो का प्रयोग किया हैं। हिन्दी का पुराना पाठक इन शब्दो से अवगत हो। मगर एक नए पाठक को यह उबाता हैं। शायद उन्होने यह प्रयोग उस समय की भाषा को दर्शाने के लिए किया हो। मगर इसके लिए वे खड़ी बोली और कश्मीरी (जो उनके एक मुख्य किरदार की बोली थी) के शब्दो का भी प्रयोग कर सकती थी। मगर उन्होने यह रास्ता नहीं चुना। मैं भाषा मे नए प्रयोग का समर्थन करता हूँ, मगर इतना भी नहीं कि एक लुग़त (शब्दकोश) की जरूरत पड़े।

खैर, यह एक कहानी नहीं, एक खत ही हैं। इस खत की कहानी मे रह गयी कामिया इसे  कम पढ़ने लायक नहीं बनाती। बल्कि इसको आगे ना पढ़ पाने का एहसास दिलाती हैं। शायद, कुछ चीज़े हमारे बस में नहीं होती।

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