एनिमल फार्म: आपकी राजनैतिक समझ और आपके मुद्दे

एनिमल फार्म: जॉर्ज ओरवेल और भारतीय राजनीति
कभी सोचा नहीं था कि आज दुबारा एनिमल फार्म पढ़कर इतना मज़ा आएगा और कभी यह भी नहीं सोचा था कि आज इस 104  पन्नो की छोटी-सी किताब में भारतीय राजनीति का मौजूदा रंग इतना साफ़-साफ़ देख सकूँगा.

वैसे मुझे ज्यादा मालूम नहीं हैं कि जॉर्ज ओरवेल ने इस किताब को किन परिस्थतियो में लिखा था, और इस किताब के छपने के बाद उन्हें किन-किन चुनौतियाँ का सामना करना पड़ा होगा. लेकिन यह ज़रूर मालूम हैं कि अगर आज की तारीख में यह किताब छपी होती, और ख़ासकर, भारत में, तो यह किताब धूम मचा देती.

शायद, इस किताब पर फ़िल्म “पद्मावत” की तरह तीन-चार महीने तक टीवी न्यूज़ चैनल्स पर चार पाँच पार्टी प्रवक्ताओ और एक टीवी एंकर की झूठी चर्चा बैठ जाती. शायद, जॉर्ज ओरवेल के पुतले दीपिका पादुकोण, रणवीर सिंह और संजय लीला भंसाली की तरह जला दिए जाते. और शायद, कोई कट्टरवादी आत्मदाह करने की एक नकली धमकी भी दे देता. दो चार राज्यों की राज्य सरकारे इस किताब के चक्कर में घनचक्कर बनने का नाटक करती और फिर, इन राज्यों में किताब की बिक्री पर रोक लग जाती.

मगर शुक्र हैं कि ऐसा कुछ नहीं हुआ. किताब 17  अगस्त 1945  में छपी. किताब की अब तक लाखो प्रतिया बिक चुकी. और किताब अभी भी रिलेवेंट हैं. (ना कि पद्मावत फ़िल्म की तरह, जिसे आधी से ज्यादा दुनिया भूल भी चुकी हैं,)

खैर, असल मुद्दे पर आते हैं.

मगर असल मुद्दा क्या हैं.

कि आप बेवकूफ़ हैं, और यह बात आपको अभी भी समझ नहीं आ रही हैं.

मैंने इधर कुछ भी लिख दिया हैं और आप हैं कि उसे बिना सोचे समझे पढ़े जा रहे हैं. ऊपर से बकैती करने के लिए तैयार बैठे हैं.

कुछ ऐसे ही, वहाँ रोज-रोज कोई-न-कोई राजनेता कुछ भी उल-जलूल बोल देता हैं और आप उसे सुने जा रहे हैं. फिर, दो कदम आगे बढ़कर, आप बकैती भी कर देते हैं.

खैर छोड़िए,  अगर आप मेरी बात समझ गए हैं, तो हम असल मुद्दे पर दुबारा आते हैं.

अब असल मुद्दा क्या हैं.

कि आप बेवकूफ़ नहीं हैं, मगर आप बेवकूफ़ बना दिए जा रहे हैं.

आँखे खोलें, और अपने आस पास देखें. दुनिया दो आयामों में नहीं बटी हैं. जहाँ आप सही हैं, और दूसरा गलत हैं, या फिर दूसरा सही हैं और आप गलत. दुनिया कई आयामों में बटी हैं, जहाँ पर थोड़े आप सही हैं, और थोड़े वे भी. फिर, असल मुद्दा और उसका हल भी इस बीच  हैं.

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