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Book Review: ठीक तुम्हारे पीछे - मानव कौल (Theek Tumhare Peechhe by Manav Kaul)
Theek Tumhare Peeche by Manav Kaul |
Manav Kaul (Image Credit: MensXP) |
फिर तरसो यानी परसों से एक दिन पहले, कुछ पढ़ने की तीव्र इच्छा हो रही थी. अमेज़न पर चला गया. कुछ किताबें ढूढने लगा, तो अमेज़न ने, मुझे मानव कौल से दुबारा परिचय करवाया. इस बार एक एक्टर के रूप में नहीं, एक लेखक के रूप में. यह बात जानकार थोड़ा अचरच हुआ कि वे लिखते भी हैं, और यह बात वह खुद भी कहते हैं, “मैं कहानियाँ लिखता हूँ, यह बात बहुत कम लोगो को पता थी.”
मैंने उनसे मिलने के लिए, उनकी दोनों किताबों से अपॉइंटमेंट मांग ली और आज हम मिल भी गए.
वैसे उनकी हाल ही मैं रिलीज़ हुयी फिल्म “तुम्हारी सुलू” की तरह उनकी किताबों के टाइटल्स भी निराले हैं. पहली किताब का नाम “ठीक तुम्हारे पीछे.” और दूसरी का नाम “प्रेम कबूतर.”
अभी पहली ही किताब पढ़ी हैं. तो उसी के बारे में कुछ कह सकता हूँ. “ठीक तुम्हारे पीछे” एक कहानी संग्रह हैं, या फिर कहू, एक कहानी संग्रह के रूप में छपी उपन्यास. उपन्यास कहना ज्यादा ठीक रहेगा. क्यूंकि हर कहानी दूसरी कहानी का विस्तार लगती हैं, एक तरह की पूरक लगती हैं, और हर कहानी में एक ही तो एक मुख्य किरदार हैं, जिसका नाम कभी शिव हैं, कभी लकी, कभी बिक्की और कभी... कोई नाम नहीं.
वैसे उस बिना नाम वाले किरदार को आप चाहे तो अपने नाम से भी बुला सकते हैं, और चाहे मानव के नाम से भी. जितना मानव को पढ़ कर पता चलता हैं, उन्हें इस बात से कोई परेशानी नहीं होगी.
हर कहानी में यह नाम और बिना नाम वाला मुख्य किरदार कुछ खोज रहा होता हैं. कभी एक नीलकंठ की उड़ान में, कभी एक पतंग बेचने वाले के हाथो में और कभी एक तस्वीर में. क्या खोज रहा हैं, यह उसको भी पता नहीं या पता होते हुए भी, वह उसे खोजने में असमर्थ हैं.
अगर आप गौर से पढेंगे तो आपको लगेगा कि आप भी वही खोज रहे हैं, जो वह किरदार खोज रहा हैं, और आप भी कही पर, उसे खोजते खोजते हार चुके हैं. इसलिए मैंने आप से कहा कि आप उस कोई नाम नहीं वाले किरदार को अपने नाम से भी बुला सकते हैं.”
दो कहानियों में वह खोज पूरी हुई दिखती हैं, जैसे उनकी पहली कहानी, “आसपास कहीं” और छठी कहानी, “माँ.” लेकिन ज्यादातर कहानियों में, मुख्य किरदार वही पर आकर रुक जाता हैं, जहाँ से उसने शुरुआत की थी.
मानव अपनी प्रस्तावना में कहते हैं कि यह कहानियाँ उनके अकेलेपन का महोत्सव हैं.
शायद, हाँ. कम-से-कम, इन कहानियों से पता चलता हैं कि हमारी जैसी सोच रखने वाले एक हम ही नहीं. कुछ और भी हैं, जो हमारी तरह बारिश का इंतज़ार कर रहे हैं. जिनको समझकर अकेलापन अकेलापन नहीं लगता, एक महोत्सव लगता हैं, एक बारिश के इंतज़ार का महोत्सव.
आप मानव की किताब, ठीक तुम्हारे पीछे, अमेज़न से खरीद सकते हैं.
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