Story
छोले-चावल और संधि विच्छेद - एक कहानी (Chole Chawal Aur Sandhi Vichhed - A Short Story)
छोले चावल (Image Source: Wikimedia) |
उस दिन व्याकरण की क्लास थी, और हम संधि और संधि विच्छेद करना सिख रहे थे. संजय सर हमें संधि करके बनाये गए कुछ शब्दों के उदहारण लिखवा रहे थे. पुस्तक और आलय, पुस्तकालय. समान और अंतर, समान्तर. युग और अनुसार, युगानुसार. और मैं उन शब्दों को नोट करने के जगह, लंच ब्रेक की घंटी बजने का इंतज़ार कर रहा था.
सोच रहा था कि कब बड़ी सुई बारह और छोटी सुई तीन से टकराए और कब ये दोनों मिलकर तीन बजने की उद्घोषणा करे. कब संजय सर क्लासरूम छोड़कर जाए. और कब मैं अपना लंच बॉक्स खोलकर, छोले चावल का लुत्फ़ उठा सकू. लेकिन कमबख्त बड़ी सुई अभी बारह के जादुई अंक से दस कदम दूर थी और उसने छोटी सुई को भी तीन से मिलने के लिए रोक रखा था.
संजय सर, जिनकी आँखे किसी गिद्ध से भी तेज थी, उन्होंने मुझे मेरे लंच बॉक्स को निहारते हुए देख लिया. वे कहने लगे, “आज लंच में क्या लाये हो, सैनी जी.” सचिन ने अपनी दबी हुई आवाज़ में कहा, “सर, छोले चावल.” संजय सर, “तो लंच बॉक्स क्यों नहीं खोल लेते.” मैंने बिना सोचे-समझे कहा, “सही में.” और फिर वो मुझे कुछ ऐसे देखने लगे, जैसे उन्होंने भी छोले चावल खाने हो, बस छोले या फिर चावल के नस्ल का नाम, हेमेन्द्र, हो. मगर वो मेरी इस सोच से भी ज्यादा क्रूर निकले. उन्होंने कहा, “सही में. बस तीन ऐसे शब्द बता दीजिये, जो दो शब्दों की संधि से बने हो.” और फिर ब्लैकबोर्ड के तरफ देखते हुए बोले, “इन सबसे अलग.”
मैंने सोचा कि इससे अच्छा, एक बार, अच्छी तरह बेज्जती करके बैठा देते. मगर, पता नहीं किस अलौकिक ताकत का नाम लेते हुए, मैंने कहा, “मानव और मनुष्य.” और फिर तीसरा शब्द क्लासरूम की छत में खोजने लगा.
मेरा जवाब सुनते ही, सचिन ने माथा पकड़ लिया. पूजा और प्रत्युषा, एक मेरी बहन और एक मुझे छोड़कर सबकी होने वाली बहन (उस वक़्त यही ख्याल थे, प्रत्युषा के बारे में.), हसने लगी. विद्यासागर शास्त्री, हमारी क्लास का हिंदी टोपर, अपना सर खुजाने लगा और बाकी क्लास अपने आप में खुसर-फुसर करने लगी.
संजय सर ने ताली पिटना चालू किया. क्लास में सन्नाटा छा गया. संजय सर मुझे देखते हुए बोले, “शाबाश मेरे लाल, शाबाश.” सचिन अपना सिर झुकाते हुए बोला, “मरवा दिया साले तूने. अब ये मलिक का बच्चा यहाँ पर आकर मेरी भी कॉपी चेक करेगा.” पूजा, मेरी बहन, मुझे दया भरी नजरो से देखने लगी. प्रत्युषा कहीं नहीं देख रही थी. और विद्यासागर शास्त्री के होठो पर एक छोटी-सी मुस्कराहट आ गयी थी.
संजय सर बोले, “मतलब पता हैं.” मैंने कहा, “संधि विच्छेद पता हैं.” उन्होंने कहा, “बताओ.” मैंने कहा, “मन और अव, मानव, मन और ईष्य, मनुष्य.” उन्होंने सिर्फ “हम्म” किया. और मैंने बिना सोचे-समझे पूछा, “सर, आपको मतलब पता हैं.” उन्होंने कहा, “जब तुम्हे इतना पता हैं. तब तुम खुद पता लगा लोगे.” और फिर वे क्लास छोड़कर जाने लगे. मगर वे जाते-जाते बोले, “अगली बार, एक्स्ट्रा छोले चावल लाना, मैं भी खायूँगा.”
अभी बड़ी सुई को बारह तक पहुचने के लिए सात कदम और चलना बाकी था, छोटी सुई का तीन से पूरण: मिलन नहीं हुआ था, मगर, केंद्रीय विद्यालय, तुगलकाबाद, द्वितीय पाली के इतिहास में पहली बार, संजय सर लंच ब्रेक होने से पहले क्लास छोड़कर चले गए. और मैंने सचिन, पूजा, प्रत्युषा, विद्यासागर शास्त्री, और क्लास में बैठे हर बच्चे के बदलते हुए भावो को गोली मारते हुए, अपने छोले चावल खाना चालू कर दिया.
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