tag:blogger.com,1999:blog-91289993714164660612024-03-19T13:45:58.409+05:30ज़ीस्तज़िन्दगी -- زیست -- life Hemendrahttp://www.blogger.com/profile/00718583913514367312noreply@blogger.comBlogger15125tag:blogger.com,1999:blog-9128999371416466061.post-67263438677083843532021-02-05T03:30:00.002+05:302021-04-14T18:10:19.792+05:30संवाद<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"> <span face=""Nirmala UI","sans-serif"" lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 115%;"></span></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhpwmoixLY69ffwkGRA8Mjghc9k7Epggf3oZrn9z_bk9YebnW05NpQ0a5ma25ArzFvb8zdzuCznyKjBGxu_9xlKYB1yhQlXXMTTXygeZKKo_mgXjCgrOOT538vhwuWemms0nlXRy2dDNV8/s640/boy-1209131_640.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="423" data-original-width="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhpwmoixLY69ffwkGRA8Mjghc9k7Epggf3oZrn9z_bk9YebnW05NpQ0a5ma25ArzFvb8zdzuCznyKjBGxu_9xlKYB1yhQlXXMTTXygeZKKo_mgXjCgrOOT538vhwuWemms0nlXRy2dDNV8/s16000/boy-1209131_640.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span face=""Nirmala UI","sans-serif"" lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 115%;">संवाद/image credit: <a href="https://pixabay.com/photos/boy-hole-hiding-hide-young-boy-1209131/">pixabay</a></span></td></tr></tbody></table><p>मेरे पास अपने पिता को बताने के लिए कई बातें हैं. कई बार लगता हैं कि इन बातों को बताते वक़्त, मेरे पास शब्द कम नहीं पड़ जाए. मगर उनके पास सिमित समय होने के कारण, मैं शब्दों की कमी के भय से मुक्त हो जाता हूँ.</p><p>फिर भी मुझे उनसे बात करने के लिए शब्दों को खोजना पड़ जाता हैं. और उन शब्दों के उचारण से लेकर उनके शाब्दिक अर्थ की बारीकी को समझना पड़ता हैं. फिर कही मैं उन शब्दों को बोलने के लिए तैयार हो पाता हूँ.</p><p>मगर जब असल संवाद की बारी आती हैं, तब ये सारी तैयारियां धरी की धरी रह जाती हैं. वे शब्द मेरा साथ छोड़कर कही छुप जाते हैं. जैसे संवाद से पहले मैं उनसे छुप रहा होता हूँ. और जैसे वो स्वयं अपने पिता से छुप रहे होते हैं.<br /><br /></p>Hemendrahttp://www.blogger.com/profile/00718583913514367312noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9128999371416466061.post-21471003070725664052020-05-03T05:37:00.002+05:302020-05-25T19:37:59.920+05:30Book Review: हमआवाज़ दिल्लियाँ - मीरा कांत (Humaawaaz Dilliyan by Meera Kant)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhCYAKFidHYXtKMNQNkWQqKQmB4DQB9pJKGouiBrmNCX_vgj1-TfupnqP6ww3ANbPxTUK-27CKF7WL-8NkA1V0-z8RXWuDY9nLm3D9jeXKMZSxbUTljhZgbrx6SHKYcllHESSdjax8akEQ/s1600/humawaaz+dilliya.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img alt="Humaawaaz Dilliyan by Meera Kant Book Cover" border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1015" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhCYAKFidHYXtKMNQNkWQqKQmB4DQB9pJKGouiBrmNCX_vgj1-TfupnqP6ww3ANbPxTUK-27CKF7WL-8NkA1V0-z8RXWuDY9nLm3D9jeXKMZSxbUTljhZgbrx6SHKYcllHESSdjax8akEQ/s640/humawaaz+dilliya.jpg" title="Humaawaaz Dilliyan by Meera Kant Book Review" width="405" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Humaawaaz Dilliyan by Meera Kant</td></tr>
</tbody></table>
क्या आपने कभी खत लिखा हैं? वो भी किसी शहर के नाम। अगर नहीं तो कोई बात नहीं। इसमे शर्माने वाली बात नहीं हैं। आजकल वैसे भी कोई खत नहीं लिखता। और जो खत लिखे जाते है वो अक्सर सरकारी दफ्तरो, कॉर्पोरेट ऑफिस, या कोर्ट परिसर मे खानापूर्ति के लिए लिखे जाते हैं। मुझे भी एक सरकारी खत मिला हैं। खैर, हम उस खत की बात नहीं करेंगे। हम बात करेंगे एक असली खत की। हाँ, कुछ सिरफिरे अभी बचे हुये हैं। जो खत लिखते हैं। ना केवल अपने महबूब के नाम, मगर अपने शहर के नाम पर भी। मीरा कांत की किताब हमआवाज़ दिल्लियाँ एक ऐसा ही खूबसूरत खत हैं। जो उन्होने दिल्ली के नाम लिखा हैं।<br />
<br />
यह खत कहने के लिए चार पीढ़ियों और दो परिवारों के बीच मे बटा पड़ा हैं। मगर यह खत सिर्फ एक ही शक्स - नियाज़ - के लिए लिखा गया हैं। या यूं कहे कि एक ही शक्स - दिल्ली - के लिए लिखा गया हैं।<br />
<br />
मीरा हमे दिल्ली के उस चेहरे से मुखातिब कराती हैं जो एक समय, नयी दिल्ली के बसने से पहले नया शहर कहलता था। और जो अब पुराना हो चला हैं। मीरा हमे इस खत के जरिये दिल्ली के 1860 से लेकर 1920 तक के सफर का एक छोटा मुयाना करवाती हैं। जब कोई मौलवी होली के रंग से दाढ़ी रंग जाने से फतवा जारी नहीं करता था। जब एक हिन्दू माँ मुस्लिम लड़के मे अपने बेटे को देखने से नहीं कतराती थी। और जब कोई पंडित एक पीर के यहा रेवड़िया बटवाने जाता था। सब खुश थे। सब एक थे, अलग नहीं। खैर, सबकुछ इतना भी रंगीन नहीं था। कुछ शिकवे भी थे और शिकायते भी। और कुछ सवाल जो आप, मैं और नियाज़ खोजते हैं। इनमे से कुछ सवालो के जवाब तो हमे तीनों को मिल जाते हैं। मगर कुछ सवाल ज्यो के त्यों बने रहते हैं।<br />
<br />
मीरा ने खत बहुत प्यार से लिखा हैं। और पढ़ने लायक भी हैं। तो जरूर पढ़िएगा। शुरुआती रिवयती उबायूपन के बाद इस खत मे झलकता हर रंग हर पन्ने के साथ खिलकर बाहर आता हैं। और आप इसमे डूबते चले जाते हैं। मगर वही यह खत एक खत होने के साथ-साथ एक कहानी भी हैं। कुल 248 पन्नो की। यह कहानी कुछ बेहतर हो सकती थी। अगर यह कहानी 1860 से लेकर 1920 की न होती, अगर यह कहानी कुछ और दशक चलती जैसे 1960 तक। मीरा ने जिस कालखंड और किस्सो का प्रयोग इस कहानी को कहने मे किया हैं, उस कालखंड और किस्सो का प्रयोग रवीन्द्रनाथ टागोर ने घरे-बाइरे मे किया हैं। राजा राव ने कांथापूरा मे किया हैं। और ऐसे कितने ही अनगिनत लेखक है जिन्होने इस कालखंड का प्रयोग अपनी कहानियों में किया हैं। और वो भी मीरा से बेहतर। अगर मीरा चाहती तो वो और भी बेहतर कर सकती थी। वो आज़ादी के बाद आए दिल्ली मे बदलाव के बारे मे बता सकती थी। उन रंगो मे आए खुरदरेपन के बारे मे बता सकती थी जो उन्होने इन पन्नो पर उकेरे थे। मगर उन्होने एक आसान रास्ता चुनना ज्यादा पसंद किया।<br />
<br />
इसके अलावा उनसे एक और शिकायत हैं कि उन्होने जरूरत से ज्यादा ही उर्दू शब्दो का प्रयोग किया हैं। हिन्दी का पुराना पाठक इन शब्दो से अवगत हो। मगर एक नए पाठक को यह उबाता हैं। शायद उन्होने यह प्रयोग उस समय की भाषा को दर्शाने के लिए किया हो। मगर इसके लिए वे खड़ी बोली और कश्मीरी (जो उनके एक मुख्य किरदार की बोली थी) के शब्दो का भी प्रयोग कर सकती थी। मगर उन्होने यह रास्ता नहीं चुना। मैं भाषा मे नए प्रयोग का समर्थन करता हूँ, मगर इतना भी नहीं कि एक लुग़त (शब्दकोश) की जरूरत पड़े।<br />
<br />
खैर, यह एक कहानी नहीं, एक खत ही हैं। इस खत की कहानी मे रह गयी कामिया इसे कम पढ़ने लायक नहीं बनाती। बल्कि इसको आगे ना पढ़ पाने का एहसास दिलाती हैं। शायद, कुछ चीज़े हमारे बस में नहीं होती।</div>
Hemendrahttp://www.blogger.com/profile/00718583913514367312noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9128999371416466061.post-14256998356572784952019-11-20T20:44:00.000+05:302019-11-20T20:44:40.127+05:30क्या तुम आगे बढ़ पाए?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhH-tmNaYnf_TWJqWWGgilhAToIcn58eEGkHJly1IWQY8PeT0285GWWilfWl7NnZS4U6IEWbfqccBZ73pDnrkiWS5Tjf50R2e7T7eNyFVlyGIFPOfSknE9McEb4hcbnbhzFJj-QEYEtpQs/s1600/snapshot.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="1280" height="360" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhH-tmNaYnf_TWJqWWGgilhAToIcn58eEGkHJly1IWQY8PeT0285GWWilfWl7NnZS4U6IEWbfqccBZ73pDnrkiWS5Tjf50R2e7T7eNyFVlyGIFPOfSknE9McEb4hcbnbhzFJj-QEYEtpQs/s640/snapshot.jpg" width="640" /></a></div>
मुझे रोमांटिक फिल्मे देखना बहुत पसंद हैं. खासकर पुरानी रोमांटिक फिल्मे. जिनमे अंत में सबकुछ ठीक हो जाता हैं. अगर ठीक ना हो तो शायद वो रोमांटिक फिल्म ना कह लाये. एक ट्रेजेडी कहलाये.<br />
<br />
आज मुझे अपनी किताब फिर से रिजेक्ट होने पर अपनी लाइफ थोड़ी सी ट्रेजेडी लग रही हैं. कितना सोचा था उस किताब के बारे में, अगर पब्लिश हो जायेगी तो सबसे पहले अपने उस नाराज़ दोस्त को कॉपी गिफ्ट करूँगा, जिससे हिम्मत कर के भी बात नहीं कर पाता. उससे कहूँगा कि ये सोचता हूँ मैं तुम्हारा बारे में. अब भी ज़िन्दगी भर नाराज़ रहना हैं. <br />
<br />
खैर जाने दे. आज खाना खाते वक़्त अपनी फेवरेट फिल्म देख रहा था. अमोल पालेकर और टीना मुनीम (अम्बानी) सितारा बातों बातों में. इस फिल्म में एक छोटा-सा किरदार हैं उदय चन्द्र द्वारा निभाया हुआ हेनरी का. हेनरी बार बार नैंसी (टीना मुनीम के किरदार) से अपने दिल की बात करने की कोशिश करता हैं. और हर बार वो निराश लौटता हैं. कभी नैंसी के बदलते हुए बॉयफ्रेंड उसके सामने आ जाते हैं. कभी उसकी कम पैसे वाली नौकरी की वजह से. और कभी नैंसी की माँ. और जब वो इन सब बाधाओ से पार पा जाता हैं तो वो नैंसी से पार नहीं पा पाता. फिल्म के आखिरी सीन में हेनरी दूर खड़े नैंसी और टोनी (अमोल पालेकर के किरदार) को हमेशा के लिए एक होते हुए देख रहा होता हैं.<br />
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मेरा मन उस वक़्त हेनरी से पूछता हैं. क्या कर रहे हो दोस्त. तुम आगे क्यों नहीं बढ़ पा रहे. किसने रोक रखा हैं तुम्हे. ज़िन्दगी अभी रुकी नहीं. और अगले पल हेनरी नैंसी और टोनी के बगल में मुस्कुराह्ते हुए खड़ा होता हैं और पूछता हैं, क्या तुम आगे बढ़ पाए.<br />
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अगर फारिख हैं तो फिल्म जरूर देखे.<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<iframe allowfullscreen="" class="YOUTUBE-iframe-video" data-thumbnail-src="https://i.ytimg.com/vi/TM06ldN28_4/0.jpg" frameborder="0" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/TM06ldN28_4?feature=player_embedded" width="320"></iframe></div>
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Hemendrahttp://www.blogger.com/profile/00718583913514367312noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9128999371416466061.post-42806033459948211822019-11-16T19:48:00.000+05:302019-11-20T20:44:40.362+05:30मेला<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhbSyKeBKG5rofBxCMK_bM2C6ai5Z7gj4UVrYYZB-5iAirYu_t3mgtp0G0NGqvriHrU5f4fDlIMv1S-ko6lvbbrbjMLyLuenn8cMRO6avJVknokKNpac7yxQCDydJRovHQj2Kcntwxt1ts/s1600/mela.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="581" data-original-width="1032" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhbSyKeBKG5rofBxCMK_bM2C6ai5Z7gj4UVrYYZB-5iAirYu_t3mgtp0G0NGqvriHrU5f4fDlIMv1S-ko6lvbbrbjMLyLuenn8cMRO6avJVknokKNpac7yxQCDydJRovHQj2Kcntwxt1ts/s400/mela.jpg" width="400" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">मेला</td></tr>
</tbody></table>
मैं खुश था कि हम मेले को पीछे छोड़कर आ गए. मैं भीड़ को देखकर डर गया था कि तुम कही बिछड़ ना जाओ. तुम्हारी आखें अभी भी मेले पर ही टिकी थी. जैसे जैसे हम मेले से दूर जाते जा रहे थे. तुम्हारी जुबान पर “मेला” शब्द बार बार आ रहा था. तुमने अपनी कलाई मेरे सामने बढाई और कहा कि यह “खुशबू” मेरे लिए लेकर आओगे. मगर उससे पहले मेरी जुबान से निकल गया कि यह “बदबू” कैसी. तुम उस दिन पहली बार गुस्सा हुई थी. और मैंने आज फिर से तुम्हे मेले में खड़ा पाया, किसी और के साथ वही गलती दोहराते हुए.</div>
Hemendrahttp://www.blogger.com/profile/00718583913514367312noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9128999371416466061.post-23196585746856002302019-11-15T23:41:00.000+05:302019-11-20T20:44:40.303+05:30रौशनी और आशा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhaOs0j4x7yCsi8Q4MO0JqSRXF_KmP96iF4bpsZF2IWdg2IKF_lDMRHSvdHwd3qHY1L6wNxjCUNhZylITkq3alTq6OiIekAk1awrPy0WDeBZ6ck9amNCdS2Wk8s3RPYKCmhNDpluJerQPQ/s1600/roshni+aur+asha.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="650" data-original-width="390" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhaOs0j4x7yCsi8Q4MO0JqSRXF_KmP96iF4bpsZF2IWdg2IKF_lDMRHSvdHwd3qHY1L6wNxjCUNhZylITkq3alTq6OiIekAk1awrPy0WDeBZ6ck9amNCdS2Wk8s3RPYKCmhNDpluJerQPQ/s1600/roshni+aur+asha.jpg" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">रौशनी और आशा</td></tr>
</tbody></table>
तुम्हे हमेशा से शिकायत रहती थी कि मैं तुम्हारा असल नाम क्यों नहीं ले पाता. “रौशनी” इतना भी मुश्किल नहीं हैं मेरा नाम, यह हमारे हर झगड़े की शुरुआत में तुम्हारा कहना होता था. मगर मेरा यकीन मानो कि मैंने लाख कोशिश की. फिर भी, पता नहीं क्यों, बार बार मेरे जुबान से “आशा” ही निकल जाता था. वैसे तुम मेरे लिए आशा ही हो. उस अंतहीन सुरंग के दूर छोर पर चमकती हुई, जिसकी वजह से वो सुरंग इतनी दूभर नहीं लगती और जिसे आज फिर मैंने “रौशनी” पुकारना चाह, मगर आज फिर जुबान से “आशा” ही निकला.</div>
Hemendrahttp://www.blogger.com/profile/00718583913514367312noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9128999371416466061.post-15986041422445997652019-11-07T21:35:00.000+05:302019-11-20T20:44:40.244+05:30तुम मेरा घर हो <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjp4D3g5lj1pu_K6VSOYLZI1UtDhkAh-Kyo4ygGgBhiH4XwMfhvf5R7Au9Fne3-cGcFZVVEYnoLdKa4adNDvVPNZGsrZSMQJKpuwj6lcI1ySKmpOar5da2J2fD_PISEa1eqAFTIXtOwi1s/s1600/tum+ghar+ho.png" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1008" data-original-width="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjp4D3g5lj1pu_K6VSOYLZI1UtDhkAh-Kyo4ygGgBhiH4XwMfhvf5R7Au9Fne3-cGcFZVVEYnoLdKa4adNDvVPNZGsrZSMQJKpuwj6lcI1ySKmpOar5da2J2fD_PISEa1eqAFTIXtOwi1s/s1600/tum+ghar+ho.png" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">तुम मेरा घर हो </td></tr>
</tbody></table>
<br />
हम शायद पहली फुर्सत मिलने पर अपने घर को ही देखते हैं. उस खिलखिलाहट से भरे गुल्दास्तान को देखते हैं. झुमके से लटके हुए विन्द्चिमस को देखते हैं. बचपन की शरारत ताकती हुई खिडकियों को देखते हैं. उस लाखो तस्वीरो से भरी दिवार को देखते हैं. नौक झोंक जैसी तीखी मिर्च के आचार के मर्तबान को देखते हैं. उस घी के साथ मुफ्त मिली चम्मच को देखते हैं. उस जैसी दूसरी चम्मच को मुफ्त पाने के लिए बीस रुपये ज्यादा देकर ख़रीदे घी के डिब्बे को देखते हैं. हम अपने आप को देखते हैं. और घर को देखते हैं. खैर हम घर को साफ़ कर हम उसे नया जैसा तो बना देते हैं. मगर हम अपने घर से ही बात नहीं कर पाते. उससे कह नहीं पाते कि तुम मेरा घर हो.</div>
Hemendrahttp://www.blogger.com/profile/00718583913514367312noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9128999371416466061.post-8261944399888230682018-10-27T19:11:00.001+05:302018-11-02T01:21:00.654+05:30Book Review: जान्हवी - भारती गौड़ (Jahnavi By Bharti Gaur)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiIP2vr8D6pHBv0ti7mrr7328ddj0n1TshyphenhyphentXOjJQg5ee75eP67FX-ZRXvGxpTOESFylgs6zTk47zp2kVzPZ43fIV4QQEuIgUDDwTvAJIKEAgIjYq921D8rlyCcw4hJ0XVXPowh71m-pm8/s1600/jahanvi+book.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img alt="Book Review: Jahnavi By Bharti Gaur" border="0" data-original-height="768" data-original-width="494" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiIP2vr8D6pHBv0ti7mrr7328ddj0n1TshyphenhyphentXOjJQg5ee75eP67FX-ZRXvGxpTOESFylgs6zTk47zp2kVzPZ43fIV4QQEuIgUDDwTvAJIKEAgIjYq921D8rlyCcw4hJ0XVXPowh71m-pm8/s400/jahanvi+book.jpg" title="Book Review: Jahnavi By Bharti Gaur" width="256" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">जान्हवी - भारती गौड़</td></tr>
</tbody></table>
मैंने हिंदी में पढ़ना, हिंदी में लिखने के बाद शुरू किया. इसलिए मुझे पता नहीं, जान्हवी जैसी कृति हिंदी में पहले लिखी गयी थी या नहीं.<br />
<br />
जान्हवी की कहानी बहती चली जाती हैं. कभी किसी मोड़ पर पल भर के लिए रूकती भी हैं, तो अपने साथ अपने एक संसार को रोक लेती हैं. ज़िन्दगी के कई कहे अनकहे किस्से को छेड़ती हैं और बस उन्हें छेड़कर आगे चल पड़ती हैं. गुस्सा आता हैं कि कहानी रुकी क्यों नहीं. उसने इस किस्से को पूरा किया क्यों नहीं, मगर वो इस वक़्त तक दुसरे किस्से की बात छेड़ चुकी होती हैं. बिलकुल किसी नदी की तरह. या कहू गंगा की तरह. जिसके नाम पर भारती गौड़ ने इस कहानी और इसके मुख्य किरदार का नाम रखा हैं. जान्हवी.<br />
<a name='more'></a><br />
जिस विधा में भारती ने जान्हवी को लेखा हैं उस विधा को अंग्रेजी में “स्ट्रीम ऑफ़ कांशसनेस” कहते हैं. हिंदी में शायद इसका कोई नाम नहीं हैं तो हम इसे “मन की धारा” कह सकते हैं. मैंने पहली बार इस विधा में डी एच लॉरेंस की कहानी मेडम बोवारी को पढ़ा था. दूसरी बार वर्जिनिया वूल्फ की कहानी थ्रू द लाइटहाउस को पढ़ा था. दोनों ही कहानियां ज्यादा कुछ समझ नहीं आई. इसलिए शायद इस विधा को ज्यादा सहरा नहीं पाया. जान्हवी ने मुझे वो मौका दिया. सिर्फ इस बात के लिए मैं जान्हवी को पुरे के पुरे नंबर दे सकता हूँ.<br />
<br />
जान्हवी जाति, तलाक़, विधवा विवाह, वृधाश्रम, बालश्रम, इंसानी रिश्तो और उनके भीतर छुपे तनाव जैसे कई विषयों पर बात करती हैं. और जैसे पहले बताया जान्हवी इन किस्से को छूती हैं, मगर उन पर पूरी तरह बात नहीं करती, किसी हल की तो आप आशा ही नहीं कर सकते. बस इस बात पर गुस्सा आता हैं, मगर इस विधा की शायद यही ख़ास बात यही हैं. यह आपको उन विषयों से मिलवाती हैं जिनसे आप कभी नहीं मिलना चाहते और भूलकर भी बात नहीं करना चाहते.<br />
<br />
इसका मतलब यह भी नहीं कि जान्हवी में कोई कमी नहीं हैं. जान्हवी में कई कमियाँ हैं और शायद भारती कुछ ज्यादा अच्छा कर सकती थी इसलिए यह कमियां और खलती हैं. कही पर कहानी बिखरी बिखरी-सी और कही पर कुछ ज्यादा ही खिची हुई. जान्हवी और उसके छोटे भाई समीर के संवाद कुछ ज्यादा ही नाटकीय लगते हैं. कुछ इस हद तक नाटकीय की वो एक मज़ाक महसूस होने लगते हैं. चाहे उन संवादों और किस्सों में तलाक के बाद दूसरी शादी, पिता-पुत्र, और भाई-बहन के रिश्तो पर बात की गयी हो.<br />
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फिर कुछ किरदार सिर्फ कहानी को भरने के लिए लाये गए महसूस होते हैं. जैसे आदिश्री. जान्हवी की बेटी, दीनूदा, अपना घर के सदस्य, जिन्हें जान्हवी तीन अलग अलग नाम से पुकारती हैं. कुछ किरदार आते हैं जैसे निहारिका और चले जाते हैं. भारती इन सब किरदारो के लिए कुछ नहीं करती. जान्हवी की भाषा भी थोड़ी पुरानी महसूस होती हैं. शायद, भारती एक प्यूरिस्ट हैं, जिन्हें भाषा में दूसरी भाषा के शब्द लेना पसंद नहीं हैं, मगर यही बात उनकी कहानी को चालीस और पचास के दशक की कहानियो की नक़ल बनाकर रख देती हैं.<br />
<br />
मैं कहूँगा इन सब खामियों के बावजूद जान्हवी पढने लायक हैं. कहानी के लिए ज्यादा नहीं तो, हिंदी में एक नयी विधा शुरू करने के लिए जरूर.</div>
Hemendrahttp://www.blogger.com/profile/00718583913514367312noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9128999371416466061.post-82443163314264974152018-04-22T10:17:00.000+05:302018-04-22T11:45:18.279+05:30समाज और मीडिया <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiyGoIpRtHshKeSOssRagcd7YbyxFJd_gxxG9s4LejRvBkZ1EzTJOpISpMINCL_LzlVQGJvs5nzU8VQORmKiAkiJRQpY1bBxSGjrqxSv7aLCtM66mtQzmKBu-wi6x5X1h4FPgrf8U3Esuw/s1600/society+and+news+media.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="367" data-original-width="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiyGoIpRtHshKeSOssRagcd7YbyxFJd_gxxG9s4LejRvBkZ1EzTJOpISpMINCL_LzlVQGJvs5nzU8VQORmKiAkiJRQpY1bBxSGjrqxSv7aLCtM66mtQzmKBu-wi6x5X1h4FPgrf8U3Esuw/s1600/society+and+news+media.jpg" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">समाज और मीडिया </td></tr>
</tbody></table>
कहते हैं कि समाज और मीडिया एक-दुसरे के प्रतिबिम्ब होते हैं. जहाँ एक शिक्षित और जागरूक समाज हमेशा दृढ़ और स्वतंत्र खबरों की बुनियाद रखता हैं, वही कमजोर और बेबुनियादी खबरे एक भ्रष्ट और दूषित समाज की तरफ इंगित करती हैं. और कुछ इस तरह हमारे भारतीय मीडिया में चलने वाली खबरों को देखा जाए तो, हम दुसरे दर्जे के समाज के रूप में दिखाई पड़ते हैं, जो दूषित हैं. जो भ्रष्ट हैं. जिसे दुसरे की क्या, अपनी भी नहीं पड़ी.<br />
<a name='more'></a><br anpur:="" br="" by="" dalit="" father="" fifteen-year-old="" four="" others="" raped="" />
आपको मेरी बात पर यकीन नहीं होता तो इस शीर्षक को पढ़ले, “स्कूल कैंपस में महादलित महिला को पहले पिलाई शराब, फिर आरोपी ने किया रेप” या फिर इसे जो एक नामी-गिरामी अंग्रेजी अखबार में आज ही छपी हैं, “15-yr-old Dalit ‘raped’ by father, 4 others”.<br />
<br />
आप इन दोनों खबरों को गौर से पढ़े तो आप पायेंगे कि यह दोनों खबरे बलात्कार से जुडी हैं. और दोनों ही खबरों में “दलित” जैसे जातिसूचक शब्द का प्रयोग हुआ हैं.<br />
<br />
अगर आप इन दोनों खबरों को फिर से पढ़े तो आपको लगेगा कि यहा पर दो लड़कियों के साथ रेप जैसी अक्षम्य घटना हो जाती हैं और यहाँ पर हम लोग इन घटनाओं का सम्बन्ध जाति से जोड़ रहे हैं. और इन दोनों घटनाओं को सवेंदनहीन बनाने पर तुले हैं.<br />
<br />
वैसे मुझे आसिफा बानो मामले में कई खबरों के छपने के बाद लगा था कि ऐसे जाति और धर्मं सूचक शब्दों में कमी आएगी, और ऐसा हुआ भी, कई अखबार और न्यूज़ चैनल्स ने आसिफा बानो मामले की खबरों पर “मुस्लिम” शब्द का प्रयोग बिल्कुल खत्म कर दिया था. लेकिन आज फिर इस अंग्रेजी अखबार में छपी खबर को पढ़कर लगा कि यह सब मेरा भ्रम था. यह सब आसिफा बानो मामले में भीड़ के गुस्से को शांत करने के लिए था. अगर वे सही में चिंतित थे, तो वे “दलित”, “सिख”, “इसाई”, “आदिवासी” मामलो में भी जाति और धर्मं सूचक शब्दों का प्रयोग न करते. वे आगे आकर कहते कि इस मुद्दे को आप राजनैतिक रंग ना दे. यह एक बच्चे और लड़की की अस्मिता से जुड़ा मामला हैं. इस मुद्दे की गंभीरता को बनाये रखे. समाज को बाटने वाले शब्दों के प्रयोग से बचे. मगर हम शायद दुसरे दर्जे का समाज हैं, जिसे ऐसा ही दुसरे दर्जे का न्यूज़ मीडिया मिलना चाहिए, जो बस कमजोर और बेबुनियादी खबरे दिखाते रहे. </div>
Hemendrahttp://www.blogger.com/profile/00718583913514367312noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9128999371416466061.post-60046793597477130462018-04-13T04:36:00.001+05:302018-04-13T04:36:25.469+05:30#justiceforasifa: वो सिर्फ आठ साल की छोटी बच्ची थी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgElr5zSa98fvohcrdzVGctmIQDDOVJXH6Ynlei-Lp4xpllEhSGiMBvoh3tdI-P_Vqat5sfNwodYKnhjB3Ox6p6g7irvubUo5i-Aq6cAUZcl_aQxxSSiBcw9FuG0WWpfy1QDXwtYI9lCvw/s1600/28167717_225022844731531_8031383978065033681_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="727" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgElr5zSa98fvohcrdzVGctmIQDDOVJXH6Ynlei-Lp4xpllEhSGiMBvoh3tdI-P_Vqat5sfNwodYKnhjB3Ox6p6g7irvubUo5i-Aq6cAUZcl_aQxxSSiBcw9FuG0WWpfy1QDXwtYI9lCvw/s1600/28167717_225022844731531_8031383978065033681_n.jpg" /></a></div>
<br />
वो सिर्फ आठ साल की छोटी बच्ची थी। <br />
<br />
दुबारा सोचे। <br />
<br />
<a href="https://www.firstpost.com/india/kathua-rape-and-murder-case-full-text-of-chargesheet-filed-by-jammu-and-kashmir-police-4426853.html">जम्मू और कश्मीर पुलिस के द्वारा फाइल की गयी चार्जशीट का पूरा टेक्स्ट</a> फर्स्ट पोस्ट पर पढ़े। </div>
Hemendrahttp://www.blogger.com/profile/00718583913514367312noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9128999371416466061.post-91353150190986096342018-04-04T10:24:00.002+05:302018-04-06T09:37:26.093+05:30Book Review: शर्ते लागू - दिव्य प्रकाश दुबे (Sharte Laagu by Divya Prakash Dubey)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhRQWW9jZrZRg4udQ0ZA179fSkFatc9_CpL4htvShk91u100s_y4wIpA4GGiI2NPvHJck889JQzO8d5L0HeYHoiUQhnc5xFjSDL7RIr6sBa8X0rAUexnKOVh4mwcdDoR7uDi1sxg9y3TU/s1600/sharte+lagu+divya+prakash+dubey+book.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img alt="Sharte Lagu Divya Prakash Dubey book review" border="0" data-original-height="475" data-original-width="308" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhRQWW9jZrZRg4udQ0ZA179fSkFatc9_CpL4htvShk91u100s_y4wIpA4GGiI2NPvHJck889JQzO8d5L0HeYHoiUQhnc5xFjSDL7RIr6sBa8X0rAUexnKOVh4mwcdDoR7uDi1sxg9y3TU/s1600/sharte+lagu+divya+prakash+dubey+book.jpg" title="Sharte Lagu Divya Prakash Dubey book review" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">शर्ते लागू - दिव्य प्रकाश दुबे</td></tr>
</tbody></table>
दिव्य प्रकाश दुबे से मेरी पहली मुलाक़ात हिंदुस्तान टाइम्स में छपे एक लेख “<a href="https://www.hindustantimes.com/books/young-turks-re-inventing-hindi-literature/story-E7ElrJPvH4vKXJGf4Hh3nJ.html">Young Turks re-inventing Hindi literature</a>” से हुई थी. दूसरी बार भी, हिंदुस्तान टाइम्स, में छपे एक लेख से ही उनसे मिलना हो पाया था. मगर दो मुलाक़ातों के बाद भी, उनका लिखा हुआ कभी पढ़ा नहीं और फिर कल यूँ ही नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से सटे एक बुक स्टोर में उनकी दो किताबे दिख पड़ी और कल ही दोनों की दोनों पढ़ भी डाली.<br />
<a name='more'></a><br />
आज उनकी पहली किताब के बारे में बाते करते हैं. शर्ते लागू. दूसरी मुसाफ़िर कैफ़े के बारे में किसी और दिन आराम से बातें करेंगे. वैसे उनकी एक और किताब “मसाला चाय” नाम से भी छप चुकी हैं, वो अभी अमेज़न पर आर्डर की हैं, जब आ जाएगी तब उसके बारे में बात करेंगे.<br />
<br />
शर्ते लागू, दिव्य की कहानी संग्रह "terms and conditions apply" का दूसरा संस्करण हैं. पहला संस्करण कभी पढ़ा नहीं तो बता नहीं पायूँगा कि क्या क्या बदलाव हुए हैं. <br />
<br />
वैसे पहली नज़र में, कुछेक कहानियाँ काफी ख़ूबसूरत लगती हैं और कुछेक के बारे में ऐसा लगता हैं कि ऐवई किताब को मोटी दिखाने के चक्कर में डाल दी गयी हो.<br />
<br />
फिर जैसा अक्सर किसी कहानी संग्रह में होता हैं. दिव्य के कहानी संग्रह में भी कुछेक कहानियाँ एक दुसरे की पूरक जान पड़ती हैं.<br />
<br />
उनकी कहानियाँ “Kitty” और “समोसा” कुछ एक जैसी ही हैं, और कुछ ऐसे ही “Monkey-man” और “let’s go home” भी. फिर बाकी सब कहानियाँ पढ़कर यही महसूस होता हैं.<br />
<br />
सारी 14 कहानियाँ पढ़कर ऐसा लगता हैं कि दिव्य ने कहानियाँ जोड़ो के हिसाब से लिखी हो. जिसमे किरदार का अंत एक कहानी में सुखद हैं तो दूसरी में दुखद.<br />
<br />
दिव्य खुद भी अपनी कहानी “कागज़” में लिखते हैं, “उसका हर किरदार अलग होते हुए भी एक था. वह वही किरदार बार-बार करता हैं. यह बात दुनिया में केवल दो लोगों को पता थी. एक उसे और एक मुझे.”<br />
<br />
इसके अलावा उनकी हर कहानी सुनी-सुनाई लगती हैं. उनके किरदारों के बारे में लगता हैं कि अभी तो मिले थे इस किरदार से. शायद, असल दुनिया में या फिर दूसरी किसी किताब में. बस इधर इन किरदारों के नाम बदलकर पारुल, शैफाली, शिवम, राहुल, किट्टी, पुत्तन, नम्रता या पल्लवी रख दिए हो.<br />
<br />
फिर यह भी लगता हैं कि यही बात इस कहानी संग्रह और इसके किरदारों को अलग बनाती हैं. शायद, दिव्य हमे इन जानी-पहचानी कहानियों और किरदारों के कई और आयाम समझाने की कोशिश कर रहे हो, जो आयाम इनसे पहले के लेखको ने छोड़ दिए हो. जो हम समझ नहीं पाए. <br />
<br />
कुछ भी हो, शर्ते लागू, एक बार पढ़ने लायक तो हैं. तीनो, कहानियों, किरदारों और दिव्य के लेखन, के लिए. </div>
Hemendrahttp://www.blogger.com/profile/00718583913514367312noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9128999371416466061.post-71006259465945573732018-04-01T07:08:00.003+05:302018-04-01T07:08:54.156+05:30इतिहास क्यों पढ़े? <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiyNEmYM8G4pCv4bmpXJQnJ5CHlDdh5DvFbuhS3p1V9DTjKoC-kZnn7pYeSbHLlabv-Wq279ZXw2cfSGewZQwW5ZqfwFA72i_oL8pzIUW6x8d2WkeDv4KMB-tBT7uWJuqVkzPI22eUgFgU/s1600/stone+carvings.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img alt="Why Study History in Hindi" border="0" data-original-height="426" data-original-width="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiyNEmYM8G4pCv4bmpXJQnJ5CHlDdh5DvFbuhS3p1V9DTjKoC-kZnn7pYeSbHLlabv-Wq279ZXw2cfSGewZQwW5ZqfwFA72i_oL8pzIUW6x8d2WkeDv4KMB-tBT7uWJuqVkzPI22eUgFgU/s1600/stone+carvings.jpg" title="Why Study History in Hindi" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">इतिहास क्यों पढ़े?</td></tr>
</tbody></table>
किसी सयाने ने कहा हैं कि जब तक हम अपने अतीत को पूरी तरह समझ नहीं लेते, तब तक हम ना अपने वर्तमान को संभाल सकते हैं और ना अपने भविष्य में आगे बढ़ सकते हैं.<br />
<a name='more'></a><br />
अगर आसान शब्दों में कहूँ, जब तक हम अपनी पुरानी गलतियों से सीख नहीं लेते, तब तक हम गलतियाँ करते ही रहते हैं. और कुछ इस तरह, जब तक हम अपनी असल खूबियों पर ध्यान नहीं देते, तब तक हम अपने आने वाले वक़्त में आगे नहीं बढ़ सकते.<br />
<br />
समाज भी कुछ हमारी तरह ही होता हैं. वे जब तक अपने अतीत को समझ नहीं लेता. उसे स्वीकार नहीं कर लेता. तब तक वे अराजकता की कड़ी में बंधा रहता हैं और आगे नहीं बढ़ पाता.<br />
<br />
इसलिए इतिहास पढ़े.<br />
<br />
इतिहास हमें हमारी जाति, धर्मं, कर्म, और बाकी छोटे-मोटे विभाजन से ऊपर उठाकर, हमारे साझा अतीत को समझने में मदद करता हैं.<br />
<br />
इतिहास बताता हैं कि ख़ुद के बनाए हुए उन हजारो-लाखो विभाजनकारी सामाजिक नियमो के बावजूद भी, हम लोग किस तरह, बुरे हालातो में एक-दूसरे के साथ खड़े रहे.<br />
<br />
इतिहास हमें सुझाता हैं कि हमारी बेख्याली और लापरवाही के कारण ना लिए गए फ़ैसलों की वजह से, हमे समाज के रूप में कितना कुछ खोना पड़ा हैं. हमे उन कुरीतियों और पुरानी परंपरा का कितना हर्जाना चुकाना पड़ा हैं, जिन्हें हमे समय रहते बदल देना चाहिए था.<br />
<br />
इतिहास हमें उन बातों को भी समझने में मदद करता हैं, जिनकी वजह से हम आने वाले भविष्य की चुनौतियों से लड़ सकते हैं.<br />
<br />
इतिहास हमें हमारे पड़ोसियों को भी जानने समझने की अक्ल देता हैं. वे बताता हैं कि उन्होंने ऐसे क्या कदम उठाए, जिसकी वजह से, वे जो आज हैं, वे क्यों हैं. और उनसे हम क्या-क्या सिख सकते हैं.<br />
<br />
और शायद आख़िर में, इतिहास इसलिए भी पढ़ लेना चाहिए, क्यूंकि इतिहास अपने आप को दोहराता हैं और इसे बिना जाने आप उस चक्र में ही फसे रहते हैं.</div>
Hemendrahttp://www.blogger.com/profile/00718583913514367312noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9128999371416466061.post-16800533087002683942018-03-17T04:21:00.001+05:302018-03-17T11:30:31.387+05:30एनिमल फार्म: आपकी राजनैतिक समझ और आपके मुद्दे<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgR40RY98-KQkggAEuDZEtFfNygncNxleQtKa2ah_L_x-A4NgfiH_Slhsofk90LyWrdqfewN3MjWvIN2YVHlQ7TZdtWvjGOxwVdLbgxKaMbt3RYylcjwaOXkooWQNDUr3cx6YuZxuVAPAI/s1600/Animal_Farm_-_1st_edition.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="599" data-original-width="407" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgR40RY98-KQkggAEuDZEtFfNygncNxleQtKa2ah_L_x-A4NgfiH_Slhsofk90LyWrdqfewN3MjWvIN2YVHlQ7TZdtWvjGOxwVdLbgxKaMbt3RYylcjwaOXkooWQNDUr3cx6YuZxuVAPAI/s1600/Animal_Farm_-_1st_edition.jpg" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">एनिमल फार्म: जॉर्ज ओरवेल और भारतीय राजनीति</td></tr>
</tbody></table>
कभी सोचा नहीं था कि आज दुबारा एनिमल फार्म पढ़कर इतना मज़ा आएगा और कभी यह भी नहीं सोचा था कि आज इस 104 पन्नो की छोटी-सी किताब में भारतीय राजनीति का मौजूदा रंग इतना साफ़-साफ़ देख सकूँगा.<br />
<a name='more'></a><br />
वैसे मुझे ज्यादा मालूम नहीं हैं कि जॉर्ज ओरवेल ने इस किताब को किन परिस्थतियो में लिखा था, और इस किताब के छपने के बाद उन्हें किन-किन चुनौतियाँ का सामना करना पड़ा होगा. लेकिन यह ज़रूर मालूम हैं कि अगर आज की तारीख में यह किताब छपी होती, और ख़ासकर, भारत में, तो यह किताब धूम मचा देती.<br />
<br />
शायद, इस किताब पर फ़िल्म “पद्मावत” की तरह तीन-चार महीने तक टीवी न्यूज़ चैनल्स पर चार पाँच पार्टी प्रवक्ताओ और एक टीवी एंकर की झूठी चर्चा बैठ जाती. शायद, जॉर्ज ओरवेल के पुतले दीपिका पादुकोण, रणवीर सिंह और संजय लीला भंसाली की तरह जला दिए जाते. और शायद, कोई कट्टरवादी आत्मदाह करने की एक नकली धमकी भी दे देता. दो चार राज्यों की राज्य सरकारे इस किताब के चक्कर में घनचक्कर बनने का नाटक करती और फिर, इन राज्यों में किताब की बिक्री पर रोक लग जाती.<br />
<br />
मगर शुक्र हैं कि ऐसा कुछ नहीं हुआ. किताब 17 अगस्त 1945 में छपी. किताब की अब तक लाखो प्रतिया बिक चुकी. और किताब अभी भी रिलेवेंट हैं. (ना कि पद्मावत फ़िल्म की तरह, जिसे आधी से ज्यादा दुनिया भूल भी चुकी हैं,)<br />
<br />
खैर, असल मुद्दे पर आते हैं.<br />
<br />
मगर असल मुद्दा क्या हैं.<br />
<br />
कि आप बेवकूफ़ हैं, और यह बात आपको अभी भी समझ नहीं आ रही हैं.<br />
<br />
मैंने इधर कुछ भी लिख दिया हैं और आप हैं कि उसे बिना सोचे समझे पढ़े जा रहे हैं. ऊपर से बकैती करने के लिए तैयार बैठे हैं.<br />
<br />
कुछ ऐसे ही, वहाँ रोज-रोज कोई-न-कोई राजनेता कुछ भी उल-जलूल बोल देता हैं और आप उसे सुने जा रहे हैं. फिर, दो कदम आगे बढ़कर, आप बकैती भी कर देते हैं.<br />
<br />
खैर छोड़िए, अगर आप मेरी बात समझ गए हैं, तो हम असल मुद्दे पर दुबारा आते हैं.<br />
<br />
अब असल मुद्दा क्या हैं.<br />
<br />
कि आप बेवकूफ़ नहीं हैं, मगर आप बेवकूफ़ बना दिए जा रहे हैं.<br />
<br />
आँखे खोलें, और अपने आस पास देखें. दुनिया दो आयामों में नहीं बटी हैं. जहाँ आप सही हैं, और दूसरा गलत हैं, या फिर दूसरा सही हैं और आप गलत. दुनिया कई आयामों में बटी हैं, जहाँ पर थोड़े आप सही हैं, और थोड़े वे भी. फिर, असल मुद्दा और उसका हल भी इस बीच हैं.</div>
Hemendrahttp://www.blogger.com/profile/00718583913514367312noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9128999371416466061.post-67053023025047471752018-02-28T20:52:00.000+05:302018-03-01T07:30:49.741+05:30छोले-चावल और संधि विच्छेद - एक कहानी (Chole Chawal Aur Sandhi Vichhed - A Short Story)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgprhMVy61cYu4g6DHXuMgxBAkPac50Hgutex9Y_gC0Tm7QQJp2UtEYjiBwux6k02hmj3oBI1kZ_jLPnvRI31YRB8cyYx1Pevy80Amg0OUXcnUIkdKGWNca48Rkz0cByDxuhz6Zae9thok/s1600/Chole_Chawal.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img alt="Chole Chawal Laghukatha A Short Story in Hindi" border="0" data-original-height="600" data-original-width="450" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgprhMVy61cYu4g6DHXuMgxBAkPac50Hgutex9Y_gC0Tm7QQJp2UtEYjiBwux6k02hmj3oBI1kZ_jLPnvRI31YRB8cyYx1Pevy80Amg0OUXcnUIkdKGWNca48Rkz0cByDxuhz6Zae9thok/s1600/Chole_Chawal.jpg" title="Chole Chawal A Hindi Short Story" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">छोले चावल (Image Source: <a href="https://commons.wikimedia.org/wiki/File:Chole_Chawal.jpg">Wikimedia</a>)</td></tr>
</tbody></table>
आज दोपहर खाना खाते वक़्त कुछ ऐसे ही मुझे संजय सर याद आ गए. संजय सर हमें दसवी में हिंदी पढ़ाते थे, और मेरी मात्राओ से परेशान होकर मुझे हमेशा कहते, “कब सुधरोगे सैनी जी.” और मेरा दोस्त सचिन हमेशा पीछे से कहता, “कभी नहीं.” और आज जब कभी अपना लिखा पढ़ लेता हूँ, तब अपने आपसे पूछता हूँ, “कब सुधरोगे सैनी जी.” और फिर खुद ही से कहता हूँ, “कभी नहीं.”<br />
<a name='more'></a><br />
उस दिन व्याकरण की क्लास थी, और हम संधि और संधि विच्छेद करना सिख रहे थे. संजय सर हमें संधि करके बनाये गए कुछ शब्दों के उदहारण लिखवा रहे थे. पुस्तक और आलय, पुस्तकालय. समान और अंतर, समान्तर. युग और अनुसार, युगानुसार. और मैं उन शब्दों को नोट करने के जगह, लंच ब्रेक की घंटी बजने का इंतज़ार कर रहा था. <br />
<br />
सोच रहा था कि कब बड़ी सुई बारह और छोटी सुई तीन से टकराए और कब ये दोनों मिलकर तीन बजने की उद्घोषणा करे. कब संजय सर क्लासरूम छोड़कर जाए. और कब मैं अपना लंच बॉक्स खोलकर, छोले चावल का लुत्फ़ उठा सकू. लेकिन कमबख्त बड़ी सुई अभी बारह के जादुई अंक से दस कदम दूर थी और उसने छोटी सुई को भी तीन से मिलने के लिए रोक रखा था.<br />
<br />
संजय सर, जिनकी आँखे किसी गिद्ध से भी तेज थी, उन्होंने मुझे मेरे लंच बॉक्स को निहारते हुए देख लिया. वे कहने लगे, “आज लंच में क्या लाये हो, सैनी जी.” सचिन ने अपनी दबी हुई आवाज़ में कहा, “सर, छोले चावल.” संजय सर, “तो लंच बॉक्स क्यों नहीं खोल लेते.” मैंने बिना सोचे-समझे कहा, “सही में.” और फिर वो मुझे कुछ ऐसे देखने लगे, जैसे उन्होंने भी छोले चावल खाने हो, बस छोले या फिर चावल के नस्ल का नाम, हेमेन्द्र, हो. मगर वो मेरी इस सोच से भी ज्यादा क्रूर निकले. उन्होंने कहा, “सही में. बस तीन ऐसे शब्द बता दीजिये, जो दो शब्दों की संधि से बने हो.” और फिर ब्लैकबोर्ड के तरफ देखते हुए बोले, “इन सबसे अलग.”<br />
<br />
मैंने सोचा कि इससे अच्छा, एक बार, अच्छी तरह बेज्जती करके बैठा देते. मगर, पता नहीं किस अलौकिक ताकत का नाम लेते हुए, मैंने कहा, “मानव और मनुष्य.” और फिर तीसरा शब्द क्लासरूम की छत में खोजने लगा.<br />
<br />
मेरा जवाब सुनते ही, सचिन ने माथा पकड़ लिया. पूजा और प्रत्युषा, एक मेरी बहन और एक मुझे छोड़कर सबकी होने वाली बहन (उस वक़्त यही ख्याल थे, प्रत्युषा के बारे में.), हसने लगी. विद्यासागर शास्त्री, हमारी क्लास का हिंदी टोपर, अपना सर खुजाने लगा और बाकी क्लास अपने आप में खुसर-फुसर करने लगी.<br />
<br />
संजय सर ने ताली पिटना चालू किया. क्लास में सन्नाटा छा गया. संजय सर मुझे देखते हुए बोले, “शाबाश मेरे लाल, शाबाश.” सचिन अपना सिर झुकाते हुए बोला, “मरवा दिया साले तूने. अब ये मलिक का बच्चा यहाँ पर आकर मेरी भी कॉपी चेक करेगा.” पूजा, मेरी बहन, मुझे दया भरी नजरो से देखने लगी. प्रत्युषा कहीं नहीं देख रही थी. और विद्यासागर शास्त्री के होठो पर एक छोटी-सी मुस्कराहट आ गयी थी.<br />
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संजय सर बोले, “मतलब पता हैं.” मैंने कहा, “संधि विच्छेद पता हैं.” उन्होंने कहा, “बताओ.” मैंने कहा, “मन और अव, मानव, मन और ईष्य, मनुष्य.” उन्होंने सिर्फ “हम्म” किया. और मैंने बिना सोचे-समझे पूछा, “सर, आपको मतलब पता हैं.” उन्होंने कहा, “जब तुम्हे इतना पता हैं. तब तुम खुद पता लगा लोगे.” और फिर वे क्लास छोड़कर जाने लगे. मगर वे जाते-जाते बोले, “अगली बार, एक्स्ट्रा छोले चावल लाना, मैं भी खायूँगा.”<br />
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अभी बड़ी सुई को बारह तक पहुचने के लिए सात कदम और चलना बाकी था, छोटी सुई का तीन से पूरण: मिलन नहीं हुआ था, मगर, केंद्रीय विद्यालय, तुगलकाबाद, द्वितीय पाली के इतिहास में पहली बार, संजय सर लंच ब्रेक होने से पहले क्लास छोड़कर चले गए. और मैंने सचिन, पूजा, प्रत्युषा, विद्यासागर शास्त्री, और क्लास में बैठे हर बच्चे के बदलते हुए भावो को गोली मारते हुए, अपने छोले चावल खाना चालू कर दिया.</div>
Hemendrahttp://www.blogger.com/profile/00718583913514367312noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9128999371416466061.post-55058167335841327942018-02-22T20:58:00.002+05:302018-02-22T21:03:30.293+05:30Book Review: ठीक तुम्हारे पीछे - मानव कौल (Theek Tumhare Peechhe by Manav Kaul)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh-Y78q2No-tZwbqc2dOD0c_sJy6O2GMLTNKhAw9pcsUnJIvgcvizX8BdDZpKSQtM1_73bYrtk15RHifQrHKfni2Kj78oxcG3pYpDp9lOUJwB4ANl8SYWB5pVP5kB68nUsAY9DsVp4BRzg/s1600/theek+tumhare+peeche.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img alt="Theek Tumhare Peeche Book Review" border="0" data-original-height="499" data-original-width="328" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh-Y78q2No-tZwbqc2dOD0c_sJy6O2GMLTNKhAw9pcsUnJIvgcvizX8BdDZpKSQtM1_73bYrtk15RHifQrHKfni2Kj78oxcG3pYpDp9lOUJwB4ANl8SYWB5pVP5kB68nUsAY9DsVp4BRzg/s1600/theek+tumhare+peeche.jpg" title="Theek Tumhare Peeche Book Review" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Theek Tumhare Peeche by Manav Kaul</td></tr>
</tbody></table>
जहाँ तक मुझे याद था, मानव कौल को मैंने पहली बार अमिताभ बच्चन और फरहान अख्तर सितारा फिल्म ‘वजीर’ में देखा था. फिर थोड़ा और दिमाग की नसों पर जोर लगाया तो याद आया कि उनसे मेरी मुलाक़ात पहले भी हो चुकी थी, जब मैं लगभग तैरह या चौदह साल का था. टीवी पर पहली बार जजंतरम ममंतरम आ रही थी, व्यास की ‘बकासुर’ और स्विफ्ट के “गुल्लिवरस ट्रेवल्स’ से प्रेरित एक कहानी, जिसमे उन्होंने “जेरान” नाम के एक सिपाही का रोल निभाया था. उनका रोल ज्यादा ख़ास नहीं था, शायद इसलिए यादों के पिटारे में सजा कर नहीं रखा. वजीर में उनका रोल, काफी दमदार था, इसलिए पहले याद आ गया.<br />
<a name='more'></a><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgd95TAl64N1RQOhMo6gHCSYIG312xJOKtbjdO7qs-h_zIuxJZTj_yU1f7elpc1ZM4Al0FE-zuElXWwMmMFtQkMfF8CyH3IZBDB5eet2ZZOt57-3k_5Y0H7A-8wT0i1F6qfuL65ubf79rY/s1600/manav+kaul.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="500" data-original-width="740" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgd95TAl64N1RQOhMo6gHCSYIG312xJOKtbjdO7qs-h_zIuxJZTj_yU1f7elpc1ZM4Al0FE-zuElXWwMmMFtQkMfF8CyH3IZBDB5eet2ZZOt57-3k_5Y0H7A-8wT0i1F6qfuL65ubf79rY/s1600/manav+kaul.jpg" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Manav Kaul (Image Credit: <a href="https://www.mensxp.com/entertainment/bollywood/40761-actor-manav-kaul-talks-about-vidya-balan-lsquo-tumhari-sulu-rsquo-acting-and-life.html">MensXP</a>)</td></tr>
</tbody></table>
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फिर तरसो यानी परसों से एक दिन पहले, कुछ पढ़ने की तीव्र इच्छा हो रही थी. अमेज़न पर चला गया. कुछ किताबें ढूढने लगा, तो अमेज़न ने, मुझे मानव कौल से दुबारा परिचय करवाया. इस बार एक एक्टर के रूप में नहीं, एक लेखक के रूप में. यह बात जानकार थोड़ा अचरच हुआ कि वे लिखते भी हैं, और यह बात वह खुद भी कहते हैं, “मैं कहानियाँ लिखता हूँ, यह बात बहुत कम लोगो को पता थी.”<br />
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मैंने उनसे मिलने के लिए, उनकी दोनों किताबों से अपॉइंटमेंट मांग ली और आज हम मिल भी गए.<br />
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वैसे उनकी हाल ही मैं रिलीज़ हुयी फिल्म “तुम्हारी सुलू” की तरह उनकी किताबों के टाइटल्स भी निराले हैं. पहली किताब का नाम “ठीक तुम्हारे पीछे.” और दूसरी का नाम “प्रेम कबूतर.”<br />
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अभी पहली ही किताब पढ़ी हैं. तो उसी के बारे में कुछ कह सकता हूँ. “ठीक तुम्हारे पीछे” एक कहानी संग्रह हैं, या फिर कहू, एक कहानी संग्रह के रूप में छपी उपन्यास. उपन्यास कहना ज्यादा ठीक रहेगा. क्यूंकि हर कहानी दूसरी कहानी का विस्तार लगती हैं, एक तरह की पूरक लगती हैं, और हर कहानी में एक ही तो एक मुख्य किरदार हैं, जिसका नाम कभी शिव हैं, कभी लकी, कभी बिक्की और कभी... कोई नाम नहीं.<br />
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वैसे उस बिना नाम वाले किरदार को आप चाहे तो अपने नाम से भी बुला सकते हैं, और चाहे मानव के नाम से भी. जितना मानव को पढ़ कर पता चलता हैं, उन्हें इस बात से कोई परेशानी नहीं होगी.<br />
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हर कहानी में यह नाम और बिना नाम वाला मुख्य किरदार कुछ खोज रहा होता हैं. कभी एक नीलकंठ की उड़ान में, कभी एक पतंग बेचने वाले के हाथो में और कभी एक तस्वीर में. क्या खोज रहा हैं, यह उसको भी पता नहीं या पता होते हुए भी, वह उसे खोजने में असमर्थ हैं. <br />
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अगर आप गौर से पढेंगे तो आपको लगेगा कि आप भी वही खोज रहे हैं, जो वह किरदार खोज रहा हैं, और आप भी कही पर, उसे खोजते खोजते हार चुके हैं. इसलिए मैंने आप से कहा कि आप उस कोई नाम नहीं वाले किरदार को अपने नाम से भी बुला सकते हैं.”<br />
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दो कहानियों में वह खोज पूरी हुई दिखती हैं, जैसे उनकी पहली कहानी, “आसपास कहीं” और छठी कहानी, “माँ.” लेकिन ज्यादातर कहानियों में, मुख्य किरदार वही पर आकर रुक जाता हैं, जहाँ से उसने शुरुआत की थी.<br />
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मानव अपनी प्रस्तावना में कहते हैं कि यह कहानियाँ उनके अकेलेपन का महोत्सव हैं. <br />
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शायद, हाँ. कम-से-कम, इन कहानियों से पता चलता हैं कि हमारी जैसी सोच रखने वाले एक हम ही नहीं. कुछ और भी हैं, जो हमारी तरह बारिश का इंतज़ार कर रहे हैं. जिनको समझकर अकेलापन अकेलापन नहीं लगता, एक महोत्सव लगता हैं, एक बारिश के इंतज़ार का महोत्सव.<br />
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आप मानव की किताब, ठीक तुम्हारे पीछे, <a href="http://amzn.to/2GxxcZp">अमेज़न</a> से खरीद सकते हैं.</div>
Hemendrahttp://www.blogger.com/profile/00718583913514367312noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9128999371416466061.post-67448692715899290502018-01-28T05:13:00.000+05:302018-01-28T05:17:42.649+05:30Book Review: ऐसी-वैसी औरत - अंकिता जैन (Aisi Waisi Aurat by Ankita Jain)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhghGaz9cKU8GjgDbmcw-YnSi67VOGKn12YsCUeBDhqaqDkQwgGt3A2SftbHJ5q0ocB021dgDumqmy3AxIq4MRg_GHiau51TwJPyvKy4Rn8hTDbdultrh3s_wuf5tkjxA8kI4MBJUC2OSE/s1600/aisi+waisi+aurat.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img alt="Aisi Waisi Aurat Book Review" border="0" data-original-height="630" data-original-width="402" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhghGaz9cKU8GjgDbmcw-YnSi67VOGKn12YsCUeBDhqaqDkQwgGt3A2SftbHJ5q0ocB021dgDumqmy3AxIq4MRg_GHiau51TwJPyvKy4Rn8hTDbdultrh3s_wuf5tkjxA8kI4MBJUC2OSE/s1600/aisi+waisi+aurat.jpg" title="Ankita Jain Aisi Waisi Aurat Book Review" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">ऐसी वैसी औरत - अंकिता जैन - Book Review</td></tr>
</tbody></table>
पिछले हफ़्ते, एक दोस्त से बातें करते-करते, रेडियो और नीलेश मिश्रा की बात चल पड़ी. कितने दिन हो गए थे, रेडियो को सुने या कहू कितने साल. आख़िरी बार, कब और कहा रेडियो सुना था याद नहीं. बस याद हैं कि मैं रेडियो सुना करता था, पापा के लाए हुए ट्रांज़िस्टर पर. वही छोटा-सा सुनहरे रंग वाला ट्रांज़िस्टर जिस पर FM रेडियो स्टेशनस के अलावा, AM और SW रेडियो स्टेशनस भी आते थे.<br />
<a name='more'></a><br />
वैसे मुझे रेडियो पर आने वाली कहानियाँ काफ़ी पसंद थी. सुनते-सुनते उन कहानियो के पात्रो की मन में एक छवि बनाना, उन्हें अपने यार-दोस्तों, जान-पहचान वालो और कभी खुद से कनेक्ट करना और उन कहानियो का मतलब खोजने के लिए अपने दोस्तों के साथ कॉलोनी की लाइट चले जाने के बाद, कॉलोनी की लाइट आने तक बाते करना. शायद इसलिए मुझे पसंद थे, नीलेश मिश्रा के रेडियो शो, यादों का इडियटबॉक्स, और यूपी की कहानियाँ. दोस्त ने बताया कि मिश्रा जी आज भी कहानियाँ सुनाते हैं, बस उन्होंने अपना रेडियो स्टेशन बदल दिया हैं, और उनकी कुछ नयी और पुरानी कहानियाँ <a href="https://www.youtube.com/channel/UCy5mW8fB24ITiiC0etjLI6w">YouTube</a> पर उपलब्ध हैं.<br />
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घर पंहुचा तो माँ ने घर के छोटे-मोटे काम थमा दिए, मगर पहली फुरसत मिलते ही नीलेश मिश्रा को YouTube पर खोज निकाला, और यहाँ पर उनकी कहानियो की प्लेलिस्ट छानते हुए हमारी मुलाक़ात हुई, यानी मेरी और अंकिता जैन की. अंकिता जैन, उनकी मंडली की कहानीकार. उनके द्वारा रची हुई, नीलेश मिश्रा के स्वर में घुली कहानियो को सुनने के बाद उनकी कुछ और कहानियाँ पढ़ने का मन किया, तो उन्हें इन्टरनेट पर खोजने लगा. और जैसा सोचा, वैसा पाया. अंकिता की अभी तक दो किताबे छप चुकी हैं, एक अंग्रेजी में, “<a href="http://amzn.to/2DGq8MY">the last karma</a>” और एक हिंदी में, “<a href="http://amzn.to/2DQ0vc1">ऐसी-वैसी औरत</a>”.<br />
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अब अंग्रेजी से मन उब चूका हूँ. शायद इसलिए आज अंग्रेजी की जगह हिंदी में लिख रहा हूँ. आप मेरा अंग्रेजी में लिखा हुआ <a href="http://www.lifestalker.com/">ब्लॉग</a> भी पढ़ सकते हैं, अब पहले की तरह तो नहीं, बस कभी-कभी अंग्रेजी में लिखता हूँ. वैसे मेरी टूटी-फूटी अंग्रेजी इसके लिए ज़िम्मेदार हैं, और फिर कभी-कभी शब्द नहीं मिल पाते खुद को एक्सप्रेस करने के लिए. छोड़े कहा की बाते लेकर बैठ गए.<br />
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अंकिता से दुबारा मिलते ही, उनकी हिंदी में लिखी हुई किताब अमेज़न पर आर्डर कर डाली और आज आते ही किताब सफाचट भी कर डाली. वैसे किताब का शीर्षक काफी लाजवाब हैं. ऐसी वैसी औरत.<br />
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ऐसी-वैसी औरत कुछ ऐसी वैसी दस औरतो की कहानियाँ हैं जिन्हें हम जानते तो हैं, मगर जान कर भी अनजाना कर देते हैं. जिनसे हम रोज मिलते तो हैं, मगर रोज मिलकर भी उन्हें अनदेखा कर देते हैं. जिनसे हम बात करना चाहते हैं, मगर हर रोज कुछ बोलने से पहले ही जुबान को रोक लेते हैं, और जिन्हें हम रोज समझने की कोशिश करना चाहते हैं, मगर हर रोज ना समझने के लिए एक बहाना बना देते हैं.<br />
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कुछ ऐसी वैसी औरतें, जो मालिन भौजी की तरह अपने सम्मान को खोज रही होती हैं या फिर रज्जो की तरह अपना सम्मान खो चुकी होती हैं, या फिर पूजा की तरह एक आख़िरी कोशिश करने में लगी हुई हैं. जो सना और सबा की तरह प्यार और ज़िंदगी के नए रंगों को समझ रही होती हैं, या फिर शिखा की तरह ज़िंदगी की एक और शुरुआत करने जा रही होती हैं. अंकिता की हर एक कहानी एक से बढ़कर एक हैं, और हमें हमारी ज़िंदगी के उन पात्रों को समझने में मदद करती हैं, जिन्हें हम मन ही मन कहते हैं, ऐसी-वैसी औरत.<br />
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हाँ, शुरू की दो कहानियों में आपको मुख्य किरदार दोहराया हुआ महसूस होगा, मगर उसे दोहराया ना कहकर, एक दुसरे का एक्सटेंशन कहना ज्यादा ठीक रहेगा. इस छोटी-सी बात के अलावा, जैसे मैं पहले ही कह चूका हूँ, अंकिता की सारी कहानियाँ खूबसूरत हैं और आपको कुछ नया सोचने और समझने के लिए मजबूर करती हैं. शायद, इसलिए आपको यह किताब पढ़नी चाहिए.<br />
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आप अंकिता जैन की ऐसी वैसी औरत <a href="http://amzn.to/2DUEuJe">अमेज़न</a> से आर्डर कर सकते हैं.</div>
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